अँक 38वर्ष 14जुन 2021

प्रायश्चित                           

- गुरुप्रसाद मैनाली

विधवा गौरी के बदन में यौवन के चिह्न भर रहे थे। अंग-प्रत्यंग से माधुर्य और लावण्य विकसित हो रहे थे। यौवन के साथसाथ पहनावे और शृङ्गारका शौक भी बढ़ने लगा था। पर करती क्या ! विधवा जो थी। उसका सौभाग्य तो विधाता मिटा गए थे। कम से कम दिखावे के लिए ही सही उसे इस दुनियाँ में बहुत सम्हलकर चलना पड़ता था। दुःख भी अपने समय पर ही आ धमकता है। जब छोटी थी, खिलवाड़ में वक़्त गुजर जाता। तब दुःख कहीं नहीं दिखता था। अब तो छोटी से छोटी बात भी मानस सरोवर में वेदना की बड़ी बड़ी तरंगे पैदा कर जाती है।

शहर में मूल सड़कसे लगा हुआ था उसका घर। कभी कोई जोड़ा अपने बच्चों के साथ ठाठ से चलता नजर आता। कभी कोई युगल जोड़ी गाड़ी में बैठ मुस्कुराते हुए निकल जाती। कभी कोई गाइने सारंगी में विरह के धुन अलापकर चलता बनता। दुनियाँ के इस मिथ्या प्रलोभनको देखकर कभीकभार उसके चंचल हृदयमें एक अज्ञात लालसा की आँधी चलने लगती। किसी मूक वेदनासे तड़प उठती। खाने पहनने की कोई कमी नहीं थी, पर जिंदगी में सूनापन छाया रहता। इस अंधकार जगत् में उसकी आत्मा किसी खोए हुए अलभ्य चीजको ढूँढ़ती रहती थी।

आदमी वही ज्याता चाहता है जो उसे नहीं मिलता। अनाज के धनी से ज्यादा दरिद्रको ज्यादा भूख लगती है। इसी तरह गौरी को भी दूसरों से ज्यादा खाने पहननेका शौक चढ़ जाया करता था । हर दिन बनठनकर, शृंगारयुक्त हो खिड़की में बैठ जाती। अभागन अपने जले हुए भाग्य(ललाट)को शृंगार में छुपाने का प्रयत्न करती।

सड़क के उसपार गोविंद का घर था। गोविंद सुंदर युवक था। बड़ा सा ललाट, बड़ी बड़ी आँखे, गठिला बदन, गोरा रङ, जैसे कोई गढ़ी हुई मूरत। त्रिचंद्र कॉलेज में बी.ए. में पढ़ता था। पत्रिकाओं में अपनी रचनाएँ भेजता रहता था। बी.ए. पास करने के बाद ही शादी करने की ठानी थी। स्त्री सुधार के पक्ष में था। स्त्रियों को पूर्ण शिक्षा देनी चाहिए; स्त्रियाँ कमरे में सजधजकर सजानेवाली वस्तु नहीं हैं; पुरुषों का उत्थान् नारी जाति के उपर निर्भर है; शिक्षित स्त्रियाँ घरको स्वर्ग बनातीं है; शादी जैसे पवित्र विषय में स्त्री और पुरुषोंको स्वतन्त्र कर देना चाहिए; आदि कहकर वह अपने साथीयों के बीच स्त्री सुधार के विषय में वादविवाद करता रहता था। फैशनका शौक था। हर रोज नए नए कपड़े पहनकर कॉलेज जाता। पड़ोसी होने की वजह से गौरी के घर में भी आना-जाना लगा रहता था।गोविंद का मनोहर रूप देखकर गौरी तृप्त हो जाती थी। नजदिकियाँ बढ़ती गईं। दो आत्माओंको एक प्रबल प्रेम सूत्रने बाँधा।

परसों गोविंद की बहन की शादी थी। गौरी भी वहाँ गई थी। एकांत में गौरी ने गोविंद से पूछा, "छोटे बाबू, यह संसार कैसा है ?"

गोविंद ने कहा- "चारों ओर खुशी छायी है। कहीं ऊँचे पहाड़ों से जल के सफेद झरने झर रहे हैं। कहीं सुन्दर बाग़ हैं तो कहीं बिजली की रोशनी से जगमगाती नृत्यशाला में नृत्य करती अप्सरा जैसी सुन्दरियाँ हैं। कितना कहूँ मझली ! जिधर देखो उधर सुंदर दृश्य ही दिखाई पढ़ते हैं।"

गौरी ने लम्बी सांस लेकर कहा, "आप झूठ कहते हैं। मैं तो जिधर देखो उधर काला अंधेरा, डरावने झरने, तीखे काटोंवाली झाड़ियाँ, हजारों हिंस्रक पशुओं से भरा गहरा काला घना जंगल, धू धू जलता हुआ श्मशान, मृत्यु वेदना की चीत्कार और रोदन के सिवा कुछ नहीं देखती। "

इतना कहकर गौरी दूसरी तरफ़ मुड़ गई और उसकी आँखों से आँसू गिरने लगे। गोविंद ने फिर कहा, "वो तो है। हम केवल कल्पना से ही सुख का अनुभव करते हैं। अगर तुम भी वैसी कल्पना कर सको तो कुछ देर के लिए ही सही, सुखी हो सकती हो।

फिर गौरी ने भरी आँखों से आसमान की तरफ देखकर कहा, "बस भई बस ! मैं कल्पना करके सुख नहीं खरीदूँगी। जिसे सुखकी चाह हो, जिसने इस जगत् में सुखी होने का मौका पा लिया हो, वही कल्पना करके सुख प्राप्त करे। मुझे नहीं चाहिए, सुखका एक रेणु भी नहीं चाहिए।"

इतना कहकर आँसू बहाते हुए वह दूसरे कमरे में चली गई।

कुछ दिनों के वाद गौरी का वदन भारी सा दिखने लगा। दोनों के चेहरे में आनंद के बदले तीव्र विषाद की छाया दिखने लगी। स्त्रियाँ लज्जाशील होती हैं, गौरी अब विशेष चिंताग्रस्त दिखने लगी। नजाने क्यों सदा आने-जाने वाला गोविंद कभी कभार ही दिखने लगा।

एक दिन रातको गोविंद अपने कमरे में बैठकर पाठ याद कर रहा था। नौकरानी चमेली नें एक कागज का टुकड़ा लाकर थमा दिया और कहा, "छोटे बाबू ! यह आपके किसी दोस्त ने भेजा है। मझली मैया ने दिया है।"

प्यारे !

एक महिना हो गया आपको न देखे हुए। परमेश्वर के दिव्य चक्षुओं को ढकने का प्रयाश किया पर नाकाम रही। नाथ ! मैं डूब गई, सासें घूँटने लगीं हैं। उतार लें प्रभु ! इस अभागिन का हाथ पकड़कर पार लगाएँ।

अभागन

गौरी

चिट्ठी पढ़ने के बाद गोविंद की आँखें तिरमिरा गईं। उजाला संसार अचानक अंधेरा हो चला। बहुत देर के बाद गोविंद विचार करने लगा – "मैंने क्या खराब किया है जो मैं डरूँ ? समाज के बुजूर्ग बारह साल की कन्याओं से शादी रचाते हैं और उसे विधवा बनाकर परलोक सिधार जाते हैं। एक पत्नी के रहते भोगविलाश की खातिर दो या तीन शादियाँ रचाते हैं।  ऐसे भी लोग हैं जो घरमें सुन्दर सुशील पत्नी के रहते वेश्यागमन करते हैं। जब वे ये सब करते हैं तो उन्हें पाप नहीं लगता, धर्म की हत्या नहीं होती, अपराध अपराध नहीं ठहरता, मैं कैसे अपराधी हूँगा? स्त्रियों की तरह पुरुष क्यों पत्नीव्रता नहीं रह सकते? ये लोग तब जानते जब उन्हें भी स्त्रियों की तरह जीवनभर विधुर रहना पड़ता। कल पूरे समाज के सामने कह दूंगा – जो बारह बरस की उमर में जो विधवा हो गई हो, उसे प्रणयसूत्र का ज्ञान कहाँ। उसे उसकी इच्छा के बगैर वैधव्य के बंधन में जकड़कर रखने का क्या मतलब? किसी प्रणययज्ञ का धूवाँ लगते ही स्त्री अपवित्र हो जाती है, यह किस धर्म में लिखा है? गौरी मेरी धर्मपत्नी है। उसके गर्भका बच्चा मेरी औरस संतान है।"

फिर मन ही मन सोचने लगा- "संसार तो बहुमत पर टीका है। मुझ अकेलेका प्रलाप कौन सुनेगा? हमारे काम इस समाज के सामने जघन्य अपराध ठहराए जाएँगे। फिर जात का सवाल खड़ा हो जाएगा। अदालत में घसिटे जाएँगे। लोग मैदानों, चबूतरों, विश्रामालयों में बैठकर हमारी आलोचना करेंगे। महल्ले की दो-चार महिलाओं को कुछेक महिनों के लिए खुराक मिल जाएगा। चन्द्रकांत भण्डारी का बेटा बेखा की दूकान पर बैठकर थपड़ी बजाएगा। बटोही उँगलियाँ उठाएँगे। बापजादों की मर्यादा डूब जाएगी। माँ रोएँगी। भाइ शर्म से गढ़ जाएँगे। मेरा प्रलाप तो हंसी में उड़ जाएगा।"

गोविंद कवि था। उसने अपने कल्पना जगत्‌ में जिस नारीका रूप धरा था वह गौरी से सौ फिसदी मिलता था। अगर गौरी विधवा न होती तो गौरीको पाकर गोविंद का जीवन सुखमय हो जाता।

कुछ देर बाद चमेली खाना खाने के लिए गोविंद को बुलाने के लिए आई पर, गोविंद ने कहा "मुझे भूख नहीं है, कह देना रसोई उठा लें।"

गौरी को देखकर महल्ले की महिलाओं की कानाफूसी शुरू हो गई। लेकिन गौरी की चिंता की कोई सीमा नहीं थी। निकट भविष्य की एक भयंकर विपत्ति आँखों के सामने नाच रही थी। इस व्यग्र वेदना में दिलाशा देनेवाला दुनियाँ में कोई नहीं था। भागे भी कहाँ भागे? चारों तरफ निर्दयी समाज की कड़ी पहरेदारी है। सोचने लगी, "मुझ अकेले का पाप तो नहीं है, आज ही जाकर छोटे बाबू से कर्तव्य तय करूंगी।"

*

शाम होने को आई थी। सड़क में गठरी ढोकर ड्यूटी में जाते और ड्यूटी से लौटते सिपाहियों का तांता लगा था। पानी के नल में औरतों की भीड़ थी। गौरी नीचे उतर गई और थोडी देर सड़क की ओर देखकर गोविंद के  द्वार में प्रवेश कर गई। चौक में नौकर दूध दुह रहना था। एक पहाड़का सा दिखता आदमी चबूतरे पर बैठकर पोहे चबा रहा था। चमेली खाली गागर लेकर नीचे आ रही थी। उसे देखकर गौरी ने कहा, "चमेली जीजी, थोड़ी देर के लिए छोटे बाबू को बुलवा दो ना।"

गौरी की आवाज सुन गोविंद की माँ ने कहा, "कौन ? वही गौरी वेश्या ? यह निर्छली राँड क्यों हमारे घर में आती रहती है ? इसके बाल खींचकर भगा दे चमेली। मनहुस कहीं की, शादी के महीने बाद शौहर को खा गई, अब किसे खाने वाली है?"

पड़ोसियों, किराएदार सिपाहियों और इधरउधर के लोगों ने जब गोविंद की माँ को खिड़की पर बैठकर डाँट लगाते हुए सुना तो, वे भी अपने अपने खिड़किओँ पर आकर तमाशा देखने लगे। गौरी उलटे पैर लौटकर अपने घर में आ गई। जब वह आधा सिँढ़ी चढ़ चुकी थी तो उसने बड़े भैया और भाभी को बातें करते सुना – "अनाथ जानकर आपने ही इसे सर पर चढ़ाया; कब कालिख पोत देगी पता नहीं। घर में पलभर का भी वास नहीं है, आप निकले नहीं कि दरवाजे पर पहुँच जाती है। जवानी सभी को चढ़ती है, इतनी उतावली तो किसी को नहीं देखा। अगर अपना ही भाग खोटा है, तो चार लोगों की बातें बचाकर चलना पड़ता है। हमारी कान्छी का भी तो शौहर नहीं है, लेकिन वह तो ऐसा नहीं करती। उजाला जमीं पर गिरते ही नदी से नहाकर आ पहुँचती है, फिर पलभर के लिए भी कमरे से बाहर नहीं निकलती। परसों ही छोटे बाबू की माँ को कहते सुना "अब वह गौरी वेश्या आ गई तो, बाल नोंचकर बाहर निकाल फेकूँगी" । वैसे आज उसका बदन भी फुला हुआ दिख रहा है। छि: क्या क्या देखने को मिलेगा ?"

"क्या करूँ मैं? यह चंडाल मेरा कहा मानती ही नहीं है।"

गौरी के दिलको पहले ही ठेस लग चुकी थी। अब और आहत हो गई। साँसें बढ़ने लगीं और धड़कन तेज हो गई। आज गौरी की हालत ऐसी पक्षी की जैसी हो गई थी जो किसी सिकारी की गोली खाकर छटपटाते हुए जमीं पर गिर पढ़ी हो।

वह चुपचाप अपने कमरे में चली गई। दीवार पर पति की तसवीर लटक रही थी। बहुत लंबे काल से निर्जीव लटकती हुई उस तसवीर में आज गौरी को अपने स्वामी की दिव्य मूरत दिखाई दी। हाथ जोड़कर कहा, "नाथ ! पुनर्जन्म में आप से पुनर्मिलन की धार्मिक आज्ञा में मैने विश्वास नहीं किया। बचपन की अल्हड़ बुद्धि से विवश होकर मैं फूलझढ़ी खेलने लगी थी। प्रभु ! सर्वस्व जलकर राख हो गया लेकिन पता नहीं चला। मैं पथभ्रष्ट हो गई, पतित हो गई, अब मैं प्रायश्चित करूँगी नाथ।"

गौरी दोनों हाथों से मुँह ढाँपकर रोने लगी। इस वेदना से कुछ देरके लिए बेहोश सी हो गई। नील गगन में लाखों तारों के बीच उसने माँ की दिव्य मूरत दिखाई दी। माँ ने लाल लाल आँखें तरेरकर कहा, "पापन ! मेरे सती के कुल में तू ने कलंक का टीका लगाया, क्यों जी रही है तू। लटककर मर जा। डूबकर मर जा। दुनियाँको अपना काला मुँह न दीखा।"

सुबह होने को थी। पशुपति में नहानेवाले प्रभाती गाते हुए रानीपोखरी के रास्ते से जा रहे थे। भूटिया की भेडें ऐसी दिखाई दे रहीं थीं जैसे नदी किनारों पर पत्थर बिखरे पढ़े हों। सड़कों की बिजली धूमिल सी हो गई थी। ऐसे में एक औरत अपनी ओढ़नी (दुपट्टा) किनार पर फेंक कर पानी पर कूद गई। एक आदमी पुलिसको बताने लगा, "पुलिस भैया, पुलिस भैया, एक औरत पानी में कूद गई।"

पुलिस जवान दौड़कर पास पहुँचा। कुछ देर में सैकडों लोग जमा हो गए। एक जवान सूचना देने थाने चला गया। पूरा उजाला होते होते इंसपेक्टर आ गए। पानी से लाश निकालकर किनारे पर रख दिया गया। अपार भीड़ लग गई।

डॉ. घोष ने लाश को उलट पलटकर देखा। फिर चश्मा निकालकर पोंछने लगे। भौंहें तन गईं, नीचले होठ काटते हुए बोले, "पेट ठो भारी मालुम होता हाए, पोस्टमार्टम कोर्ने होगा।"

राह चलते एक कुली ने अपने साथी से कहा, "क्या बात है, कितनी सुन्दर थी।"

"इसिलिए तो डूबकर मर गई। औरतों का रूप ही दुश्मन, रूप ही दोस्त। तेरी और मेरी औरतें तो ज्यापू के खेत में लगाए जानेवाले काक-भगौड़े सी दिखती हैं। जाकर मर कहते हुए घर से निकाल फेंकने पर भी नहीं मरेंगी।"

कुछ देर बाद में चश्माधारी एक सुंदर युवक भीड़ को चिरते हुए लाश के करिब आया। वह गोविंद था। मरने वाली गौरी थी। गोविंद का चेहरा होश उड़ा दिख रहा था। वह संज्ञाहीन पागल सा दिख रहा था।

आज समाज की वेदिका पर एक अनाथ विधवा की जीवनलीला इस तरह खत्म हो गई थी।

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मूल नेपाली से रूपान्तर : कुमुद

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