अँक 38 | वर्ष 14 | जुन 2021 |
“मिस्टर गोर्वाचेभ ! टियर डाउन दिस वाल”
-जीवा लामीछाने
2018 की एक धूपभरी सुबह।
धूप ऐसे खिली थी जैसे चैत्र-वैशाख की दोपहरी में चितवन में खिलती है। लगता था दुनियाँ भर की धूप युरोप लाकर उड़ेली गई है।
वैसे भी ठंड ज्यादा होनेवाले क्षेत्रों में धूप प्यारा लगना आम बात है। युरोपियन लोग हमेशा धूप से प्यार करते हैं। लेकिन इस बार धूप युरोपको ज्यादा ही प्यार कर रहा था।
पार्कका हरा दूब सूख रहा था, मक्कीके गुच्छे सूख रहे थे, पेड़ के पत्ते सूख रहे थे। लेकिन जो खुस थे, वे सिर्फ इन्सान थे। लगता था धूप लोगों के चेहरों पर पुती हुई है।
ऐसे ही धूप में हमलोग विभाजन कालके पूर्वी जर्मनी के एक क्षेत्र में घूमने निकले थे। यह यात्रा मेरे लिए नयी नहीं थी। लेकिन सहयात्री लेखकद्वय अमर न्यौपाने और रवीन्द्र समीर के लिए यह जगह बिलकुल नयी थी। जब कहीं नयी जगह घुमने जाते हैं तो उस जगह का इतिहास और वर्तमान की घटनाओं का वर्णन करते हुए घूमना पुराने समय से नए समय तक की एक लंबी यात्रा पर निकलना जैसा अनुभव होता है। इसलिए मैं पूर्वी जर्मनी के बारे में जितना जानता था उतना बता रहा था। हमारे साथ आया हमारा बेटा अनुकृत, एक सुधी छात्र की भाँति हमारी बातें सुन रहा था।
किसी भी जगह की पहली यात्रा में दिमाग से ज्यादा आँखें घूमती हैं शायद। इसिलिए दो लेखक के कान तो मेरी तरफ थे लेकिन आँखें गाडी के बाहर के दृश्यों में अटकी हुईं थीं। लगता था युरोप के दृश्य वे आँखों में कैद कर रहे थे।
मैं दृष्टि में जो था, उसमे थोड़ा इतिहास मिलाकर कुछ न कुछ सुनाता जाता और बेटे की तरफ देखकर कहता, "है न, बेटे !"
अनुकृत ने स्कूल में युरोप का ही नहीं पूरी दुनियाँ का इतिहास पढ़ा है। आजकल मेरे लिए मेरे दो बेटे अनुराग और अनुकृत ही दूसरे गुगल हैं।
मैंने अनुकृत से कहा, "अब तुम बता दो।"
अनुकृत ने सुरु किया, "पूर्वी जर्मनी में रूसी मॉडलका समाजवादी शासन था तो पश्चिमी जर्मनी में अमरिका, इंग्लैन्ड और फ्रान्स के योजना के माफिक लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था थी। वे दोनो पड़ोसी ऐसे थे, जैसे आज के दिनमें एक ही भाषा, जाति के होते हुए भी उत्तर और दक्षिण कोरिया रहे हैं।
पूर्वी जर्मनी के वाइमर शहर पहुँचने पर भी धूप कम होनेका नाम नहीं ले रही थी। लेकिन जब हिंसा के आधार में खड़ा हुआ वाइमर का अभिशप्त इतिहास याद आता तो लगता मन में ठंडी लहर दौड़ रही है।
जब हम वाइमर शहर स्थित हिटलर के तानाशाही के दौरान बना बुखेनभाल्ड बन्दीगृह पहुँचे तो ऐसा लगा जैसे दशकों पुरानी चित्कार की गुंजन सुनाई दे रही है।
नाम बन्दीगृह था, लेकिन वह वास्तव में यातना गृह था। क्रूर इतिहासका साक्ष यह बन्दीगृह अब सङ्ग्रहालय में तब्दील हो गया है। लेकिन अब भी प्रवेश करने पर लगता सैकड़ों लोग चीख रहे हैं और उनकी आवाज प्रतिध्वनित हो रही है। क्रूर यातना के आधार में खड़ा हुआ बन्दीगृह प्रवेश करते ही मन में कुछ सवालात उठे-
- अगर हिटलर न जन्मा होता?
- जन्मने पर भी वह जर्मनीका चांसलर और फ्युरर न हुआ होता?
- चान्सलर हो जाने पर भी उसने ६० लाख यहुदियों को गैस चैंबर में न मारा होता?
- दूसरा विश्वयुद्ध न हुआ होता?
- होने पर भी जर्मनी ने न जीता होता?
मैंने खुद से पूछा- अगर सबकुछ मेरे कहे जैसा होता तो युरोप और विश्व का नक्सा दूसरा ही होता न ?
लेकिन ये सब सवाल ऐसे थे जिसके कोई जबाव नहीं थे।
1937 में बने इस यातना गृह में 1945 तक 56 हजार लोग मारे गए थे। क्रूर इतिहासका अवशेष देखने के लिए हम बन्दीगृह में प्रवेश कर चुके थे। हिटलर ने कैसे लाखों विरोधियों को मारा होगा ? सङ्ग्रहालय इसी सवालका जबाव लिए खडा था।
जब मैं सङ्ग्रहालय में फोटो लेने लगा तो अनुकृत ने समझाया, "पापा, दूसरे जगहों की भांति यहाँ फोटो लेने पर मुस्कुराते नहीं हैं। जिस जगह में छह वर्ष तक लाखों लोग दुःख और यातना से रोए हों, वहाँ मुस्कुराना उनके प्रति अपमान ही होगा न।" उसकी बातें जायज़ थीं।
दोनों लेखकों को मैंने इतिहास की कुछ क्रूर घटनाओँ के बारे में बताया।
आधारभूत मानवीय सुविधाएँ भी न होनेवाले उस बन्दीगृह में किसी बन्दीका कभी भी मारा जाना या क्रूर यातना सहते हुए विक्षिप्त बन जाना आम बात थी। कड़ी परहेदारी में रहे इस बन्दीगृह में कई लोग गलत इलाज से मारे गए, कई लोगों को करेंट लगाकर मारा गया, कई को क्रूर यातना देकर अंग भंग किया गया, इसका कोई लेखा जोखा नहीं है।
इतिहास की व्याख्या करते मेरे और दो लेखकों के सुनते होठों से मुस्कान गायब हो गई थी।
अगर मरने पर भी आत्मा जीवित ही रहती है तो, मरनेवालों के श्राप से हिटलर की आत्मा तड़पती रही होगी।
यह वही बन्दीगृह था जहाँ हिटलर ने 50 देशों से 2,77,000 लोगों को श्रमके लिए बन्दी बनाया था। लोगों पर डेथ मेडिसिनका प्रयोग किया जाता ता कि पता चले कितनी मात्राएँ देनेपर लोग मर जाते हैं।
1945 में दूसरे विश्वयुद्ध में विजय हासिल करने के बाद अमरिकी सैनिकों ने भाग्य से बचे लोगों को बन्दीगृह से मुक्त कर दिया था। वह स्थान बाद में रसिया के कब्जे में चला गया। 1950 में जब जर्मनी विभाजित हुआ तो सोभियत सैनिकों ने इस स्थान को पूर्वी जर्मनी को सौंप दिया।
मुक्त होने पर कुछ बन्दी अमरिका पहुँच गए थे। कुछ अपने देश लौट गए थे।
इस बन्दीगृह में अपने पिताजी के साथ त्रासद समय गुजारे रोमानियन नागरिक एलिजर विसेल बाद में संसार प्रसिद्ध साहित्यकार बने। उन्होंने 1956 में एक नाइट नाम से एक किताब लिखी जिसमें उन्होंने बन्दीगृह भीतर की यातनाओंका व्योरा, बन्दियों का आर्तनाद, और उस त्रासद समय का वर्णन किया था। उन्होंने अपने जीवनकाल में 57 किताबें लिखी और हिंसा के विरोध में विश्वव्यापी अभियान चलाया। उन्हें 1986 का नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया था।
दूसरे विश्वयुद्धके समय में विभिन्न देशों के सैनिक मिलाकर बनाए गए एलिड फोर्स के कमान्डर जनरल ड्वाइट औइजनहावर ने कहा था, "यह जगह इतनी त्रासद होगी, मैंने कभी कल्पना नहीं की थी।"
बन्दीगृह से लौटते वक्त हम सभी चुप थे। लेकिन उदार मन के तालाब में अनेक सवाल तैर रहे थे।
- बर्बर यातना भोगने वाले लोगों नें मौत के मुँह में क्या सोचा होगा?
- यातना से बचे हुए लोगों के स्मृति में क्या रहता होगा?
बन्दीगृह से आगे निकल जाने पर अनुकृत ने मौन तोड़ते हुए कहा, "अरे, हाँ पापा, आप तो पूर्वी जर्मनी का अस्तित्व रहते ही बहुत बार यहाँ आए हैं न?"
"हाँ आया तो था।"
उसने मुझे पुरानी यादों की तरफ धकेल दिया। मुझे सोभियत संघ में पढ़ते वक्त जवानी के दिन या आ गए। पुराने घर, समाजवादी शासन, और बर्लिन की यह दीवार होते हुए इस शहर में प्रवेश करते वक्त जब मैं स्टालिन की शैली में बने सामुहिक घर देखता तो उस वक्त के सहपाठी शीतल गुप्ता और दीपक कंसाकार याद आ जाते। ये वही दोस्त थे, जो मेरे साथ अनेक बार उस क्षेत्रका भ्रमण कर चुके थे।
जब मास्को में मैं विश्वविद्यालयका छात्र था तो छुट्टी के दिनों में मैं अपने दोस्तों के साथ पोल्यान्ड, पूर्वी जर्मनी होते हुए, पश्चिमी जर्मनी प्रवेश कर जाता। विद्यार्थीओँ को विदेश से अपनी व्यक्तिगत जरूरत के लिए सामान खरीद ले आने की छूट थी। हम सामानों की खरीदारी करते और फिर जिस मार्ग से आए थे, उसी से लौट जाते। यह छूट व्यक्तिगत प्रयोग के लिए विद्यार्थीओँ को दी गई थी, नेपाल में भी ठीक ऐसी ही व्यवस्था थी जिसे "झिटीगुण्टा" कहा जाता था।
***
6 नवम्बर 1987 के दिन मैं पहली बार बेलारूस्की स्टेसन से बर्लिन की यात्रा में निकल पड़ा था। साथ में शीतल गुप्ता, दीपक कंसाकार और कुछ अग्रज थे।
उस समय जर्मनी के साथसाथ युरोप में उत्पादित उपभोग्य सामानों के प्रति रूसी जनता में बड़ा मोह था। वैसे पूर्वी युरोप में बने सामान रूस में उपलब्ध न हों, ऐसा नहीं था। लेकिन पश्चिमी जर्मनी में बने सामानों का आकर्षण पूर्वी जर्मनी में बने सामानों की तुलना में कुछ अधिक ही था।
वैसे सोभियत संघ सैन्य बलके मामले में अमरिका से टक्कर लेने के काबिल था, लेकिन दैनिक जरूरत की सामानों की किल्लत हमेशा रहती थी। वह कमी कुछ हद तक हम जैसे विदेशी विद्यार्थी करते थे जिसको निश्चित मात्रा में सामान खरीद लाने की छूट थी।
पूर्वी बर्लिन के फ्रेइडरिखस्ट्रास्से स्टेसन पहुँचने पर रेल रूक जाती थी। इसी स्टेसन में कोपनहेगन, स्टॉकहोम, पेरिस और मास्को से भी रेलें आती थीं। दूसरे विश्वयुद्ध के पहले, शक्तिशाली जर्मनी के लिए सामान लेआने और लेजाने के लिए यह स्टेसन की भूमिका महत थी।
पश्चिमी जर्मनी पूँजीवाद की सम्पन्नता से बढ़ता हुआ बाजार की द्रुत यात्रा में था। इसलिए सिर्फ पूर्वी जर्मनी में ही नहीं बल्कि रूसी नागरिकों के लिए भी यह सपनों का देश बना हुआ था। पूर्वी जर्मनी में साम्यवादी व्यवस्था सुरु हुए अभी चार वर्ष ही हुए थे 1953 में और विरोध प्रदर्शन शुरू हो चुका था। आठ वर्षों में तकरीबन 35 लाख लोग पूर्वी जर्मनी से भागकर पश्चिमी जर्मनी पहुँच गए थे। अपने नागरिकों को रोकने के लिए पूर्वी जर्मनी ने सोभियत संघ की मद्दतसे 1961 में रातों रात दीवार खड़ी कर दी थी।
28 वर्ष तक इस दीवार ने बर्लिन शहरको विभाजित रखा। इतिहास बताता है कि इस दौरान दीवार लांघकर पश्चिमी जर्मनी की ओर जानेवाले तकरीबन एक हजार लोग मारे गए। हजारों लोग दीवार लांघने की असफल प्रयास में गिरफ्तार हुए और उन्हें यातनाएँ दी गई।
हम लोग फ्रेइडरिखस्ट्रास्से स्टेसन में उतरकर बर्लिन दीवार के बगल में लगे सीमा नियन्त्रण कार्यालय में अपने पासपोर्ट चैक करवाकर पश्चिमी जर्मनी पहुँच जाते। सीमा पार करने के बाद हम बर्लिन के जियोलाजिकल गार्डन स्टेसन में पहुँच जाते। अनुभवी अग्रज दिनभर इधर उधर दौड़ते हुए खरीदारी करते। हमारा काम उनके पिछे दौड़ना होता। टॉनी सॉप, बिल्का, सिएनए जैसे दुकानों से सामान लेकर हम शाम होते होते फिर वही स्टेसन में पहुँच जाते। जाते वक्त हमारे हाथ खाली होते पर लौटते वक्त सामानों की गठरियों से लैस होते।
खरीदे गए सामानों को ढोकर रेल स्टेसन पहुँचते पहुँचते हम पसीने से तर हो जाते थे। गर्म शरीर से निकला पसीना भी गर्म ही होता। लेकिन स्टेसन में इंतजार करते करते शरीर ठंडा पड़ जाता और पसीना ठंडा लगने लगता।
चूँकि इस यात्रा से विद्यार्थीओं को कुछ न कुछ अर्थोपार्जन हो जाता था, कॉलेज छुट्टी होते होते विद्यार्थीओंका झुंड बर्लिन जाने के लिए बेलारूस्की स्टेसन की तर्फ दौड़ पड़ता। पढ़ाई के दौरान हम कई बार बर्लिन गए और लौटते वक्त कपड़ों और दूसरे सामानों की गठरी ढोए पसीने से तर मास्को लौट पड़ते।
इन्हीं यात्राओं में मैंने रूस ही नहीं बल्कि पूर्वी जर्मनी के समाजवादी शासनको कमजोर पड़ते हुए महसूस किया था।
***
"उसके बाद क्या हुआ?"
मैं तो अपने इतिहास में युरोप का इतिहास मिलाकर वाचन करनेवाला वाचक जैसा हो गया था। मैंने महसूस किया अपनी यादें सुनाते वक्त सभी मेरे मुँह की ओर ताक रहे थे।
मैं कहता गया –
दोनों देशों की जनता पूर्वी जर्मनी और पश्चिमी जर्मनी के एकीकरण के पक्ष में थी। सोभियत राष्ट्रपति मिखाइल गोर्वाचेव की सदासयता और अमरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन के दबाव के कारण 1990 अक्टोबर 3 के दिन दोनों देशों के बीच एकीकरण की घोषणा हुई।
एकीकरण के बाद हमारी यात्रा पहले जैसे आसान नहीं हो पाई। पहले ऑन अराइवल भिसा प्रदान करने वाली जर्मनी सरकार अब आनेजानेवालों पर कड़ी नजर रखने लगी।
विद्यार्थी जीवन के उस भागदौड़ से भरपूर यात्राओं के 15 साल बाद मैं 2008 में बर्लिन शहर घुमने निकला था। उस वक्त जर्मनी के लिए नेपाली राजदूत मदन कुमार भट्टराई और अम्बिका जीजी नें मेरी पारिवारिक यात्रा को यादगार बना दिया था। उनके स्नेहाशक्त अनुरोध के बाद हम उनके निवास में ही तीन दिन तक अतिथि बनकर रहे और बर्लिन शहर के चप्पे चप्पे छान मारे।
"तुम्हें याद है?" मैंने अनुकृत की ओर देखकर कहा।
"हाँ, पापा। मुझे याद है। हम सब उन जगहों पर घुमे थे और आपकी पुरानी बातें भी सुनी थी।" एक दशक पुरानी यात्रा की स्मृति सुनने पर वह उत्साहित हो गया था।
अलग अलग समय में अलग अलग उद्देश्य से की गई यात्राओं के अनुभव सुनाते सुनाते मैं रोमांचित हो गया था। पारिवारिक यात्रा के दौरान मैंने उन्हे अपने विद्यार्थी काल की भागदौड़ की, शहर का कोना कोना छान मारने की और सामानों की गठरी ढोते हुए इधर से उधर दौड़ने की कहानी सुनाई थी। संघर्ष के उस समय में जमा करी पूँजी ही मेरी आज की व्यावसायिक सफलता की नीव थी ।
अपने विद्यार्थी काल के दो दशक बाद की गई पारिवारिक यात्रा के दौरान मैं दो अलग समय की तुलना कर रहा था। बर्लिन शहर घुमते हुए मैंने अपने लाड़लों को एक भवन दिखाते हुए कहा था, "मालूम है, उस भवन में उस वक्त प्रसिद्ध बिल्का सॉपिङ मॉल हुआ करता था। मैंने भी यहाँ से सैकड़ों बार सामान उठाया है।"
बर्लिन दीवार गिरी हुई जगह में दो सैनिक पहरा दे रहे थे और लगता था वे शीतयुद्धकालीन समय की झलक दिखा रहे थे । उस जगह का नाम था चेक पॉइन्ट चार्ली और वहाँ सीमा नियन्त्रण के बजाय पर्यटकों से रकम लेकर फोटो खिँचवाने का काम हो रहा था। पोट्सड्याम की सांससुची दरबार, ब्रान्देनबर्ग गेट घुमते हुए मेरे दिमाग में शिर से पैर तक पसीने से तर अपने संघर्ष के दिन याद आ रहे थे।
बर्लिन दीवार की अवशेषों पर खड़े होकर हमारे जैसे कई पर्यटक फोटो खिँचवा रहे थे। किसी समय की 155 किलोमिटर लम्बी दीवार एक छोटी जगह में सिकुड़कर ऐतिहासिक सम्पदा बन गयी थी। 13 फिट की यह दीवार लांघकर पश्चिमी जर्मनी में अपनों का साथ और स्वतन्त्रता पाने के लिए कोशिश करते वक्त जान देने वालों का इतिहास दीवार पर टंगी पोस्टरों में लिखा था।
बर्लिन दीवार के पास पहुँचते ही जर्मनी विभाजन की कहानी वैसे ही याद आ गई थी। दूसरे विश्व युद्ध में नाजी सेनाओँ को पराजित करने के लिए अमरिका, विलायत, फ्रान्स, और सोभियत संघ एक हो गए थे। पोड्सड्याम संधी में शक्ति राष्ट्रोंद्वारा जर्मनीको चार भागों में विभाजित किया गया था- अमरिकी, विलायती, फ्रेन्च और सोभियत संघवाली।
सोभियत संघ के सैटेलाइट राज्य के रूपमा चार वर्ष रहने के बाद अपने अधीन में रहे पूर्वी क्षेत्र में सोभियत संघ ने जर्मन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक (पूर्वी जर्मनी) की स्थापना की, और वहाँ साम्यवादी व्यवस्था शुरू हो गई।
दूरसी तरफ अमरिका, विलायत और फ्रान्स के अधीन रहे क्षेत्रों में फेडेरल रिपब्लिक अफ जर्मनी (पश्चिम जर्मनी) की घोषणा हुई। राजधानी बर्लिन में चारों देशों के सैनिक नियन्त्रण की व्यवस्था की गई। पूर्वी जर्मनी में राज्य नियन्त्रित अर्थव्यवस्था आरम्भ हुई और पश्चिमी जर्मनी में खुले बाजार की अर्थनीति की शुरूवात हुई। पूर्वी जर्मनी ने अपनी राजधानी बर्लिन में ही रहने दिया और पश्चिमी जर्मनी राजधानी बोन शहर ले गया।
1989 तक आते आते पूर्वी जर्मनी की जनता अपने देश की राज्यव्यवस्था से पूरी तरह निराश हो चुकी थी। दैनिक सामानों की किल्लत, और आकाश छूती बेरोजगारी ने जीवन स्तर को बहुत नीचे गिराया था। हंगेरी की सीमा पार कर हजारों लोग पूर्वी जर्मनी से पश्चिमी जर्मनी जाने लगे थे। पूर्वी युरोप के अन्य देशों में साम्यवादी व्यवस्था के खिलाफ नागरिक आंदोलन छिड़ रहे थे।
इधर विरोध की आवाज बुलंद होना और उधर सोभियत संघ में मिखाइल गोर्वाचेभ का राजनीतिक व्यवस्था पर ढील देना एक साथ हो रहा था। अमरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन ने पश्चिम जर्मनी के भ्रमण के दौरान इसी बातपर हवा फूँक दी। उन्होंने ब्रान्डेनबर्ग गेट में जो भाषण दिया था, उसका एक अंश मिस्टर गोर्वाचेभ, टियर डाउन दिस वाल अब भी चर्चित है। इसी पृष्ठभूमि में विलायती पॉप गायक बिल्ली ऑडिसन द्वारा गाया गया गीत टियर डाउन दिस वाल उस वक्त का बेस्ट सेलर ऑडियो डिस्क था।
जर्मनी एकीकरण के तीस साल बाद भी, पूर्वी जर्मनी विकास की दृष्टि से पीछे दिखाई देता है। पूर्वी जर्मनी के विकास के खातिर जर्मनी के नागरिक अतिरिक्त कर (सॉलिडारिटी सरचार्ज) भुगतान करते हैं और उन्हें ऐसा करते हुए तीस साल हो गए हैं। कई तो ऐसे कर का विरोध भी करते आए हैं।
पिछले आम चुनाव में यह एक चुनावी मुद्दा बन गया था। एक तथ्याङ्क के अनुसार, जर्मन संघीय सरकार पूर्वी क्षेत्र के विकास और निर्माण कार्य में दो ट्रिलियन युरोसे ज्यादा खर्च कर चुकी है। फिर भी पश्चिमी जर्मनी की तुलना में पूर्वी जर्मनी पीछे ही है।
वैसे देखा जाए तो दोनों तरफ के लोग समान रूप से असंतुष्ट हैं। शिकायत सिर्फ अभाव की मिट्टी में ही नहीं पनपति, समृद्धि की मिट्टी में भी अपना हुनर दिखाती है। पश्चिम के लोगों को शिकायत है – 30 वर्षों से हमारे दिए हुए कर से वे मस्ती कर रहे हैं। पूर्व के लोग सोचते हैं – हमसे भेदभाव किया गया। न पूरब के लोगों ने एक ही देश के नागरिक होने की बात सोची न पश्चिम के लोग अपने सगोत्री की भांति पूरब के लोगों को अपना सके।
विभाजन का वह दुःखता नासूर कब सुख जाए पता नहीं। उनके संबन्ध को हम अब्दुर्रहीम खानेखाना के इस दोहे से बखूबी बयां कर सकते हैं –
रहिमन धागा प्रेमका मत तोड़ो चटकाए
टुटे से फिर ना जुटे जुटे गाँठ पड़ जाए।
*
मूल नेपाली से अनुवादः कुमुद अधिकारी
नई पुस्तक "देश देशावर "से।
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